“जब चातुर्मास बना आत्मबोध का उत्सव शंकराचार्य जी की वाणी से जगा वेद, समाधि से फूटा ब्रह्म, और कथा में बसा राम”

नरसिंहपुर गोटेगांव मुकेश राय

*चतुर्थ दिवस की दिव्यता में ब्रह्मचारी सुबुद्धानंद जी महाराज का संयम, शास्त्र, और सेवा का सुंदर समन्वय*

श्रीधाम, परमहंसी गंगा आश्रम चतुर्थ दिवस।

चातुर्मास केवल एक सनातन परंपरा नहीं है, यह आत्मा को ब्रह्म की ओर ले जाने वाला मार्ग है। और जब उस मार्ग के पथिक पूज्य शंकराचार्य स्वामी सदानंद सरस्वती जी महाराज हों, तब हर दिन काल की एक जीवंत धड़कन बन जाता है।

चतुर्थ दिवस की प्रभात भी उसी मौन ऋचा से शुरू हुई — समाधि पर मौन नमन, फिर दिनचर्या में शास्त्रपाठ, ध्यान और प्रवचन की तैयारी। इस दिव्य व्यवस्था की संचालन-रेखा बनकर पूज्य ब्रह्मचारी सुबुद्धानंद जी महाराज सदैव सन्नद्ध रहते हैं।

उनकी भूमिका केवल निज सचिव की नहीं, बल्कि सेवा और सनातन व्यवस्था के रक्षक की है। वे शंकराचार्य परंपरा के उस मौन अंग हैं, जो मंच पर नहीं बोलते, पर पीछे रहकर पूरी व्यवस्था को तप की तरह निभाते हैं।

मुण्डकोपनिषद् का चतुर्थ बिंदु: ‘येनाक्षरं पुरुषं वेद सत्यं’ जब आत्मा ब्रह्म को छूती है

प्रातः प्रवचन सभा में पूज्य शंकराचार्य जी महाराज ने मुण्डकोपनिषद् के उस मंत्र पर अमृतवाणी दी, जिसमें ब्रह्म की अभिव्यक्ति “अक्षर” (जिसका नाश न हो) रूप में होती है:

> “येनाक्षरं पुरुषं वेद सत्यं…”
“जो पुरुष उस अक्षर ब्रह्म को जानता है, वही सत्य जानता है, वही मुक्त होता है।”
पूज्य महराज श्री ने कहा:

> “शब्द ब्रह्म है, लेकिन जो शब्द के पार है, वही परब्रह्म है। जब तक आत्मा देह से चिपकी रहती है, वह अक्षर नहीं जान सकती। लेकिन जैसे ही वह गुरु की कृपा से स्वयं को देखती है, वहाँ से मुक्ति आरंभ होती है।”
इस वाणी में श्रोता मंत्रमुग्ध हुए किसी को लगा जैसे ऋषि आत्रेय बोल रहे हैं, किसी को लगा स्वयं वेद उतर आए हैं।
*रामकथा का चतुर्थ दिवस जब भरत बने त्याग का तीर्थ*

शाम 5:00 बजे की कथा सभा में जब पूज्य शंकराचार्य जी मंचासीन हुए, वहाँ एक विशेष शांति थी जैसे राम का वनगमन अभी-अभी हुआ हो, जैसे भरत अभी-अभी चित्रकूट पहुँचे हों।
पूज्य महाराज ने भरत चरित्र को धर्म का शिखर बताया। उन्होंने कहा:
> “भरत ने कोई उपदेश नहीं दिया — उनका जीवन ही उपदेश था।
सिंहासन को राम के चरणों में रख देना, केवल राजनीति नहीं — वह सनातन नीति का पराकाष्ठा है।”
सीस नाइ पद पदुम प्रनामा।
बंदेउँ प्रथम भरत अभिरामा॥
उन्होंने यह भी बताया कि भरत का त्याग और विवेक आज के हर सनातनी के लिए आदर्श है कि सत्ता, सम्मान और अधिकार – सब धर्म के नीचे होने चाहिए, न कि उसके ऊपर।
*सुबुद्धानंद जी महाराज जहाँ सेवा बनती है साधना*
पूरे आयोजन की गरिमा, अनुशासन और अध्यात्म को पूर्ण रूप से एक लयबद्ध धारा में प्रवाहित करने में पूज्य ब्रह्मचारी सुबुद्धानंद जी महाराज की अदृश्य तपस्या महत्वपूर्ण रही।
वे व्यासपीठ के पीछे की शक्ति हैं जिनका जीवन स्वयं ‘मौन सेवा’ की उपनिषद है।

उनकी उपस्थिति ने यह सिद्ध किया कि

> “जहाँ गुरु बोलते हैं, वहाँ शिष्य का मौन भी शास्त्र होता है।
जहाँ संत प्रवचन करते हैं, वहाँ सचिव सेवा से कथा को साकार करता है।”
सनातन धर्म शास्त्रों से नहीं, चरित्र से जीवित रहता है
पूज्य शंकराचार्य जी महाराज ने प्रवचन के अंत में कहा:
> “वेद, उपनिषद्, रामायण – ये सब हमारी चेतना के बीज हैं। लेकिन जब तक हम भरत की तरह त्याग नहीं करते, मारीच की तरह चेतावनी नहीं सुनते, और गुरु की तरह मौन नहीं साधते, तब तक यह धर्म बाहर रहेगा — भीतर नहीं जागेगा।”
आज का दिन सिर्फ चतुर्थ दिवस नहीं था — यह वेद, वैराग्य और विवेक का संगम बन गया।
यहाँ प्रवचन नहीं, प्राण बोले।
यहाँ कथा नहीं, चरित्र चला।
और इस सबके पीछे — एक संत, एक सचिव, और एक सनातन ध्वनि तीनों की समवेत साधना थी।

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