संवाददाता: अरविंद कोठारी, ठाणे
दिवा (ठाणे):
महाराष्ट्र के ठाणे जिले का दिवा शहर आज दंड व्यवस्था की सबसे बड़ी विडंबनाओं में से एक बन गया है। पांच लाख से अधिक की आबादी वाला यह शहर आज भी बुनियादी शिक्षा सुविधाओं से वंचित है। विडंबना यह है कि पिछले 10 वर्षों से नगरसेवक, विधायक और सांसद तीनों ही सत्ताधारी पार्टी से हैं, फिर भी आज तक एक भी सरकारी अंग्रेजी माध्यम का स्कूल शुरू नहीं हुआ है, न ही 10वीं तक चलने वाला हिंदी माध्यम का स्कूल।
📚 स्कूल हैं, लेकिन मान्यता नहीं; बच्चे हैं, लेकिन भविष्य अनिश्चित
हाल ही में दिवा के 19 वैध स्कूल प्रिंसिपलों ने चेतावनी दी है कि वे 1 जुलाई से स्कूल बंद कर विरोध प्रदर्शन करेंगे। उन्होंने आरोप लगाया कि शहर में बिना किसी मंजूरी के 85 से अधिक अवैध स्कूल चल रहे हैं।
इन स्कूलों के पास न तो पर्याप्त जमीन है, न ही खेल मैदान, फिर भी यहां करीब 15,000 बच्चे पढ़ रहे हैं। वजह साफ है- ये स्कूल अपेक्षाकृत सस्ती फीस पर शिक्षा दे रहे हैं, जो आम जनता की जेब के अनुकूल है।
🏫 तो क्या शिक्षा बन गई है दोहदाने की ज़रिया?
दिवा की जनता का सवाल बिल्कुल साफ है-
> “अगर अवैध स्कूल बंद हो गए और सरकारी स्कूल बंद हो गए, तो हमारे बच्चों का क्या होगा?”
वहीं, वैध स्कूलों की हालत भी कम चिंताजनक नहीं है।
इन स्कूलों में एडमिशन फीस ₹7,000 से ₹20,000 तक है,
फीस ₹12,000 से ₹19,000 सालाना है,
और किताबों के नाम पर ₹6,000 वसूले जाते हैं।
इतना ही नहीं, कई स्कूल और यहां तक कि उनकी अपनी इमारतें भी अवैध रूप से बनी हुई हैं।
❓ सवाल तो बहुत हैं, लेकिन जवाब देने वाला कोई नहीं
1. सत्ता में रहते हुए एक भी सरकारी स्कूल न खोलना – क्या यह जनप्रतिनिधियों की विफलता नहीं है?
2. “वैध” माने जाने वाले स्कूल गरीबों के लिए दुर्गम क्यों हैं?
3. जो स्कूल सालों से हजारों बच्चों को शिक्षा दे रहा है, अगर वे “अवैध” हैं, तो उन बच्चों को दंडित करने का औचित्य कहां है?
⚠️ कानूनी और सामाजिक विसंगतियां
सुधार विभाग अवैध स्कूलों को बंद करने की बात तो करता है, लेकिन उनके स्थान पर कोई वैकल्पिक व्यवस्था नहीं करता।
इन स्कूलों से पास होने वाले छात्रों की मार्कशीट, लिविंग सर्टिफिकेट और दस्तावेज वैध नहीं माने जाते, जिससे उनकी सजा कानूनी रूप से अमान्य हो जाती है।
यह अनुच्छेद 21ए के तहत “6 से 14 वर्ष के बच्चों को मुफ्त और अनिवार्य दंड के अधिकार” का सीधा उल्लंघन है।
—
📣 जन अपील – संवैधानिक और व्यावहारिक समाधान की मांग
> “जब तक सरकार अपने स्कूल नहीं खोलती, तब तक स्कूल बंद नहीं होने चाहिए।”
उनकी मान्यता प्रक्रिया को सरल बनाया जाना चाहिए, तथा बच्चों को सजा देने को अस्थायी मान्यता देकर वैध बनाया जाना चाहिए।”
—
🧭 नारे बनाम जमीनी हकीकत
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का नारा –
“हर बच्चा पढ़े, देश आगे बढ़े”
दिवा में, हालांकि, एक राजनीतिक मजाक बन गया है।
यहां, सजा कोई अधिकार नहीं है, ‘अभिजात्य वर्ग की वस्तु’ बनना गलत बात है – जिसे केवल पैसे वाले ही खरीद सकते हैं।
—
📌 मुख्य बिंदु – एक नज़र में:
🔹 10 साल में एक भी सरकारी स्कूल नहीं बना
🔹 85 से ज़्यादा अवैध स्कूल – 15,000 से ज़्यादा छात्र प्रभावित
🔹 वैध स्कूलों की फ़ीस ₹7,000-₹20,000 तक है, साथ ही किताबों और अन्य शुल्कों में अतिरिक्त खर्च
🔹 सुधार विभाग की चुप्पी और राजनीतिक उदासीनता
🔹 आम जनता के बच्चों का भविष्य अज्ञात और अनिश्चित है
—
🖊️ निष्कर्ष:
दिवा सिटी की यह स्थिति शहरी दंड त्रासदी में बदल गई है।
यहाँ दंड की बात तो होती है, लेकिन योजना नहीं।
यहाँ स्कूल तो हैं, लेकिन स्वीकृति नहीं।
यहाँ बच्चे तो हैं, लेकिन भविष्य नहीं।
जब तक राजनीतिक इच्छाशक्ति और प्रशासनिक जागरूकता नहीं आएगी, दिवा नाम मात्र की ही ‘दिवा’ रहेगी – असल में अन्धकार से घिरा हुआ।

















